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'असम के गांधी' जिन्होंने छुआछूत मिटाने को दलितों के लिए खोले थे अपने घर के द्वार

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Published : Oct 10, 2021, 5:10 AM IST

गांधीवादी नेताओं की बात की जाए तो असम से एक बड़ा नाम सामने आता है कृष्ण नाथ सरमा का, जिन्हें 'हरिजन बंधु' के नाम से भी जाना जाता है. समृद्ध हिंदू परिवार में जन्म लेने वाले कृष्ण नाथ सरमा ने 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए वकालत छोड़ दी. समाज से छुआछूत मिटाने के लिए हरिजनों के लिए न सिर्फ अपने घर के दरवाजे खोल दिए बल्कि उन्हें अपने प्रार्थनाघर में शामिल किया. भारत को आजाद हुए 75 साल हो चुके हैं. केंद्र सरकार इसे आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रही है. कई कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जा रहा है. आज पढ़िए जोरहाट से 'ईटीवी भारत' के लिए दीपक मुक्तिया (Deepak Muktiya) की विशेष रिपोर्ट.

कृष्ण नाथ सरमा
कृष्ण नाथ सरमा

गुवाहाटी : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्ष 1932 में 'हरिजन' या देश के दलितों की स्थिति सुधारने के इरादे से 'हरिजन सेवक संघ' संगठन की स्थापना की. इस संघ ने दलितों के उत्थान के लिए काम किया. इस वर्ग के लोगों की मंदिरों, स्कूलों, सड़कों और जल संसाधनों आदि जैसे सभी सार्वजनिक स्थानों तक पहुंचने में मदद की. देश के बाकी हिस्सों के साथ असम में भी इस आंदोलन का व्यापक असर देखा गया. असम में इस आंदोलन की अगुवाई कृष्ण नाथ सरमा (Krishna Nath Sarma) ने की जिन्हें 'हरिजन बंधु' के नाम से भी जाना जाता है.

असम से खास रिपोर्ट
कृष्ण नाथ सरमा एक सच्चे गांधीवादी नेता थे जिन्हें हरिजन आंदोलन में शामिल होने के कारण तत्कालीन रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज ने बहिष्कृत कर दिया था. 28 फरवरी, 1887 को असम के जोरहाट जिले के सरबाईबंधा में जन्मे सरमा ने गांधीजी के हरिजन आंदोलन (Harijan movement) के माध्यम से हरिजनों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अपना संघर्ष जारी रखा. विज्ञान से स्नातक करने के बाद अर्ल लॉ कॉलेज ( Earl Law College) से कानून की पढ़ाई करने के बाद सरमा ने वकालत शुरू की, लेकिन 1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उसमें सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए वकालत छोड़ दी.

'विलासिता का जीवन छोड़ असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया'
जोरहाट कॉलेज के प्राचार्य देबब्रत सरमा का कहना है कि 'असम के कृष्ण नाथ सरमा उन अग्रदूतों में से एक थे जिन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था. वह चाय बागान मालिकों के एक समृद्ध परिवार से थे, लेकिन गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए आराम और विलासिता का त्याग किया. वह प्रसिद्ध वकील भी थे लेकिन आंदोलन के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया. उन्होंने असम में कांग्रेस सम्मेलन की मेजबानी करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.'

कई आंदोलनों से जुड़े कृष्ण नाथ सरमा
कृष्ण नाथ सरमा को 1921 में जोरहाट जिले में कांग्रेस पार्टी का प्रभार दिया गया था. उसी वर्ष सरमा को नबीन चंद्र बोरदोलोई, तरुण राम फुकन और कुलधर चालिहा के साथ एक साल जेल की सजा भी काटनी पड़ी थी. गांधीजी के कदमों पर चलते हुए सरमा ने असम में सामाजिक आर्थिक विकास के लिए कई आंदोलन शुरू किए, जैसे निरक्षरता का उन्मूलन, स्कूल और कॉलेज खोलना, अस्पतालों की स्थापना, दूरदराज के इलाकों में सड़कों का निर्माण आदि.

हरिजनों को घर से प्रार्थनास्थल में दी जगह
इस स्वतंत्रता सेनानी के प्रमुख योगदान में 'अस्पृश्यता उन्मूलन' की दिशा में किए गए काम थे. ब्राह्मण परिवार से आने वाले सरमा ने अपने घर में नामघर (प्रार्थना स्थल) में हरिजनों का स्वागत किया, जो उन दिनों एक साहसिक कार्य था. 1934 में जब महात्मा गांधी दूसरी बार असम आए तो हरिजनों के लिए नामघर का उद्घाटन किया. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

गांधी जी ने किया था नामघर का उद्घाटन
देबब्रत सरमा ने बताया कि '1934 में जब गांधीजी असम आए तो सरमा उनके साथ थे. सरमा की वजह से ही गांधीजी ने नामघर का दौरा किया और नामघर का उद्घाटन किया जो अब जोरहाट में मास्टरहाट में स्थित है. जोरहाट में जो अब कृष्ण आश्रम है वह तब कृष्णनाथ सरमा का निवास था. गांधीजी वहां गए थे और से इसे हरिजनों के लिए खोल दिया.'

जीवन भर गांधीजी के आदर्शों का पालन करने वाले एक सच्चे गांधीवादी का निधन 2 फरवरी 1947 को हुआ. हालांकि, असम के इस समाज सुधारक को आज तक राज्य में उनकी उचित पहचान नहीं मिली है.

'छुआछूत की जड़ को तोड़ने में मिली मदद'
देबब्रत सरमा का कहना है कि सरमा ने अस्पृश्यता (छुआछूत) को मिटाने के लिए जोरहाट के हरिजनों को अपने घर में आमंत्रित किया और उन्हें नामघर में दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया. जोरहाट में हिंदू, कोइबर्तास (Koibartas) और अन्य समुदायों ने उनके ऐसे कार्यों के लिए आलोचना की. हालांकि, उनके ऐसा करने से निश्चित रूप से छुआछूत की जड़ को तोड़ने के साथ ही ऐसा समाज बनाने में मदद मिली जिसमें हर व्यक्ति समान हो और समाज में उसका सम्मान हो.

जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है साबरमती आश्रम
जोरहाट में कृष्णनाथ सरमा ने जिस साबरमती आश्रम की स्थापना की थी, वह अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. स्थानीय लोगों और बाद की सरकारों की रुचि की कमी के कारण, आश्रम अब जंगलों से घिरा है. सरकार के पास ऐसे आश्रम के जीर्णोद्धार की कोई योजना नहीं है, जिसका असम के स्वतंत्रता-पूर्व युग का एक समृद्ध इतिहास है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जोरहाट के सरबाईबंध क्षेत्र (Sarbaibandha area) में साबरमती आश्रम के परिसर में कृष्णनाथ सरमा का स्मारक आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है.

पढ़ें- शहीद ध्रुव कुंडू की शौर्य गाथा, 13 साल की उम्र में खट्टे किए अंग्रेजों के दांत

देबब्रत सरमा का कहना है कि जोरहाट में साबरमती आश्रम निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक स्थान है. यह देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़ा हुआ है. यह मोहनदास करमचंद गांधी की विरासत से भी जुड़ा हुआ है. उनका कहना है कि 'मुझे लगता है कि जब हम असहयोग आंदोलन का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं, यह उचित समय है कि हमें गांधीवादी कृष्णनाथ सरमा की स्मृति में एक पुस्तकालय, एक संग्रहालय की स्थापना करके उनके लेखन, पत्रों आदि को संरक्षित करने के बारे में सोचना चाहिए ताकि हर कोई इस गांधीवादी विरासत से अवगत हो सके, जिसका देश के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत योगदान था.'

कृष्णनाथ सरमा की विरासत को संरक्षित करने के लिए सरकार या जनता की ओर से प्रयास किया जाना चाहिए, यह समय की जरूरत है.

पढ़ें- महात्मा गांधी ने मदुरै में सुनी अंतरात्मा की आवाज, बदल डाली परिधान की परिभाषा

गुवाहाटी : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्ष 1932 में 'हरिजन' या देश के दलितों की स्थिति सुधारने के इरादे से 'हरिजन सेवक संघ' संगठन की स्थापना की. इस संघ ने दलितों के उत्थान के लिए काम किया. इस वर्ग के लोगों की मंदिरों, स्कूलों, सड़कों और जल संसाधनों आदि जैसे सभी सार्वजनिक स्थानों तक पहुंचने में मदद की. देश के बाकी हिस्सों के साथ असम में भी इस आंदोलन का व्यापक असर देखा गया. असम में इस आंदोलन की अगुवाई कृष्ण नाथ सरमा (Krishna Nath Sarma) ने की जिन्हें 'हरिजन बंधु' के नाम से भी जाना जाता है.

असम से खास रिपोर्ट
कृष्ण नाथ सरमा एक सच्चे गांधीवादी नेता थे जिन्हें हरिजन आंदोलन में शामिल होने के कारण तत्कालीन रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज ने बहिष्कृत कर दिया था. 28 फरवरी, 1887 को असम के जोरहाट जिले के सरबाईबंधा में जन्मे सरमा ने गांधीजी के हरिजन आंदोलन (Harijan movement) के माध्यम से हरिजनों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अपना संघर्ष जारी रखा. विज्ञान से स्नातक करने के बाद अर्ल लॉ कॉलेज ( Earl Law College) से कानून की पढ़ाई करने के बाद सरमा ने वकालत शुरू की, लेकिन 1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उसमें सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए वकालत छोड़ दी.

'विलासिता का जीवन छोड़ असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया'
जोरहाट कॉलेज के प्राचार्य देबब्रत सरमा का कहना है कि 'असम के कृष्ण नाथ सरमा उन अग्रदूतों में से एक थे जिन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था. वह चाय बागान मालिकों के एक समृद्ध परिवार से थे, लेकिन गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए आराम और विलासिता का त्याग किया. वह प्रसिद्ध वकील भी थे लेकिन आंदोलन के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया. उन्होंने असम में कांग्रेस सम्मेलन की मेजबानी करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.'

कई आंदोलनों से जुड़े कृष्ण नाथ सरमा
कृष्ण नाथ सरमा को 1921 में जोरहाट जिले में कांग्रेस पार्टी का प्रभार दिया गया था. उसी वर्ष सरमा को नबीन चंद्र बोरदोलोई, तरुण राम फुकन और कुलधर चालिहा के साथ एक साल जेल की सजा भी काटनी पड़ी थी. गांधीजी के कदमों पर चलते हुए सरमा ने असम में सामाजिक आर्थिक विकास के लिए कई आंदोलन शुरू किए, जैसे निरक्षरता का उन्मूलन, स्कूल और कॉलेज खोलना, अस्पतालों की स्थापना, दूरदराज के इलाकों में सड़कों का निर्माण आदि.

हरिजनों को घर से प्रार्थनास्थल में दी जगह
इस स्वतंत्रता सेनानी के प्रमुख योगदान में 'अस्पृश्यता उन्मूलन' की दिशा में किए गए काम थे. ब्राह्मण परिवार से आने वाले सरमा ने अपने घर में नामघर (प्रार्थना स्थल) में हरिजनों का स्वागत किया, जो उन दिनों एक साहसिक कार्य था. 1934 में जब महात्मा गांधी दूसरी बार असम आए तो हरिजनों के लिए नामघर का उद्घाटन किया. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

गांधी जी ने किया था नामघर का उद्घाटन
देबब्रत सरमा ने बताया कि '1934 में जब गांधीजी असम आए तो सरमा उनके साथ थे. सरमा की वजह से ही गांधीजी ने नामघर का दौरा किया और नामघर का उद्घाटन किया जो अब जोरहाट में मास्टरहाट में स्थित है. जोरहाट में जो अब कृष्ण आश्रम है वह तब कृष्णनाथ सरमा का निवास था. गांधीजी वहां गए थे और से इसे हरिजनों के लिए खोल दिया.'

जीवन भर गांधीजी के आदर्शों का पालन करने वाले एक सच्चे गांधीवादी का निधन 2 फरवरी 1947 को हुआ. हालांकि, असम के इस समाज सुधारक को आज तक राज्य में उनकी उचित पहचान नहीं मिली है.

'छुआछूत की जड़ को तोड़ने में मिली मदद'
देबब्रत सरमा का कहना है कि सरमा ने अस्पृश्यता (छुआछूत) को मिटाने के लिए जोरहाट के हरिजनों को अपने घर में आमंत्रित किया और उन्हें नामघर में दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया. जोरहाट में हिंदू, कोइबर्तास (Koibartas) और अन्य समुदायों ने उनके ऐसे कार्यों के लिए आलोचना की. हालांकि, उनके ऐसा करने से निश्चित रूप से छुआछूत की जड़ को तोड़ने के साथ ही ऐसा समाज बनाने में मदद मिली जिसमें हर व्यक्ति समान हो और समाज में उसका सम्मान हो.

जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है साबरमती आश्रम
जोरहाट में कृष्णनाथ सरमा ने जिस साबरमती आश्रम की स्थापना की थी, वह अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. स्थानीय लोगों और बाद की सरकारों की रुचि की कमी के कारण, आश्रम अब जंगलों से घिरा है. सरकार के पास ऐसे आश्रम के जीर्णोद्धार की कोई योजना नहीं है, जिसका असम के स्वतंत्रता-पूर्व युग का एक समृद्ध इतिहास है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जोरहाट के सरबाईबंध क्षेत्र (Sarbaibandha area) में साबरमती आश्रम के परिसर में कृष्णनाथ सरमा का स्मारक आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है.

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देबब्रत सरमा का कहना है कि जोरहाट में साबरमती आश्रम निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक स्थान है. यह देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से जुड़ा हुआ है. यह मोहनदास करमचंद गांधी की विरासत से भी जुड़ा हुआ है. उनका कहना है कि 'मुझे लगता है कि जब हम असहयोग आंदोलन का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं, यह उचित समय है कि हमें गांधीवादी कृष्णनाथ सरमा की स्मृति में एक पुस्तकालय, एक संग्रहालय की स्थापना करके उनके लेखन, पत्रों आदि को संरक्षित करने के बारे में सोचना चाहिए ताकि हर कोई इस गांधीवादी विरासत से अवगत हो सके, जिसका देश के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत योगदान था.'

कृष्णनाथ सरमा की विरासत को संरक्षित करने के लिए सरकार या जनता की ओर से प्रयास किया जाना चाहिए, यह समय की जरूरत है.

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